आज का विशेष
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वो मंजर ख़ुशी का था
वो मंजर ख़ुशी का था या ज्यादती थी l
था बहुत बाप गुमसुम माँ भी सुबकती थी ll
ख़ुशी से बुलाया गैर को ले के जाये,
मगर जाने वाली अब भी सिसकती थी l
हसीं लाल जोड़े में सजी थी बहुत पर,
जाने नज़रों से क्यों झड़ी बरसती थी l
यु कल जिनको देखा था गुडियों से खेलते,
आज उन हाथो में मेंहदी रची थी l
सजी थी फूलों से दुल्हन की डोली,
मगर दुल्हन तो खुद आंसुओं से सजी थी l
देवता मान जिनको बहन सोपी हमने,
होड़ उनमे ये घर लूटने की मची थी l
बेबसी का जश्न है बहन की विदाई l
'मनुज' मेरे घर भी ये हकीकत घटी थी ll
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"यूँ तो हर जख्म भी
"यूँ तो हर जख्म भी भर जाता है l
पर जुबां का घाव ठहर जाता है ll
नापाक होते ही एक जिन्दा लाश बचती है,
आदमी तो उस रोज ही मर जाता है l
ढोर मरते है जब बच्चे बिलखते है भूख से,
हो के मजबूर तब कोई गाँव छोड़ शहर जाता है l
आटे और दाल के जब भाव पता लगते है 'मनुज' l
इश्क का भूत तो इक पल में उतर जाता है ll "
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जख्म तुम भी नही दिखाते
जख्म तुम भी नही दिखाते अपने ,
घाव में भी अपने नही धोती |
तुम गगन हो के भी नही हंसते ,
में जमीं हो के भी नही रोती ||
दम घुटता है तुम्हारा बादलों के बंधन में
में डूबती हूँ लाज के समंदर में हरदम
तुम जागते हो चाँद तारों के संग अँधेरी रातों में
में भी घूमती हूँ अक्स पर झुक कर हर घड़ी
कभी नही सोती
तुम गगन हो के भी नही हंसते ,
में जमीं हो के भी नही रोती ||
जख्म तुम भी नही दिखाते........................
बरसतें है जब तुम्हारे आंसू बनकर घनघोर घटा
में ही तो थामती हूँ अपने आंचल को बना कर दरिया
उबल कर दर्द जब मेरे सीने का सूख कर उड़ता है भाप बनकर
बदल कर रूप बादलों का समा लेते हो तुम ही अपने अंदर
सदियों से जारी है ये रस्म
खत्म नही होती
तुम गगन हो के भी नही हंसते ,
में जमीं हो के भी नही रोती ||
जख्म तुम भी नही दिखाते........................
अधूरा मानों या चाहे मानों पूरा
चाहत का इस से बड़ा कोई प्रमाण नही होगा
देख कर जीते है युगों से एक दूसरे को
पता है हमारा मिलन कभी नही होगा
भूलते नही तुम भी ये हकीकत एक पल
झूठे सपने में भी नही सजोती
तुम गगन हो के भी नही हंसते ,में जमीं हो के भी नही रोती ||
जख्म तुम भी नही दिखाते अपने ,घाव में भी अपने नही धोती |
तुम गगन हो के भी नही हंसते ,में जमीं हो के भी नही रोती ||
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मै और जर्दा
"जीवन रूपी कठोर इंसान ने,
माँ की कोख रुपी थेली से निकाल कर मुझे,
वक्त की क्रूर हथेलियों में,
डाल दिया,
और बचपन में ही,
तकलीफों रुपी कड़वा चूना मिला दिया,
सुख और दुःख के,
कठोर पाटो रुपी हाथों की,
परिस्तिथि रुपी अंगुलियों ने,
मुझे बहुत मसला,
दुर्घटनाओं रुपी अंगूठे के,
क्रूर प्रहारों ने मुझे पीस डाला,
असफलताओं की फटकारों ने मुझे खूब फेंटा,
बेरोजगारी की सख्त चुटकी ने,
मेरे सारे वजूद को दबा कर,
जिम्मेदारिओं के अधरझूल में लटका दिया मुझे,
उपेक्षाओं रुपी फूंक ने,
मेरे सारे सहारे उड़ा दिए,
वक्त के क्रूर हाथों में बिलकुल अकेला,
कर दिया मुझे,
आज ढलती उम्र के पड़ाव पर,
जीवन के गुजरे सालों की तरह,
बत्तीस दांतों के पास से गुजर कर,
मसूड़ों रुपी बीमारियों के,
अटूट बंधन में बन्ध चुका हु में,
मौत किसी इंसान के,
खोखले हो चुके जबड़े की तरह,
मेरे चारों और आवरण लगा चुकी है,
जाने कब मेरे सारे वजूद को चूस कर,
मुझे जिन्दा लाश की तरह,
थूक दिया जाये,
और साँसों के आखिरी पडाव पर,
सोच रहा हु मै कि,
सृष्टी का सर्वश्रेस्ट प्राणी कहलाता हु मै
पर 'मनुज' क्या फर्क है
मुझमे और मेरी जेब में रखे
जर्दे में |"
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"बस एक तिनका बिखर गया l
घोसला न जाने किधर गया ll
ख़ुशी की हर घड़ी वो साथ ले गयी,
दर्द गहरा सा दिल में उतर गया l
जिन्दगी भटकनो का नाम रह गयी,
हमकदम भी साथ देने से मुकर गया l
थका हुवा सा बदहवास चल रहा हु में,
कारवां कही आराम लेने को ठहर गया l
दोस्तों की भीड़ भी उसकी महफ़िल में चली गयी,
मेरे आँगन में बस सन्नाटा पसर गया l
वो किसी गैर के है गम नही 'मनुज' l
दिल उजड़ा तो क्या किसी का घर संवर गया ll "
ऐ योवन के जोश,,,,,, रहे क्यों अब तक तुम खामोश,,,,,,,,,
सकल सब लुटता जाता ,,,,,,,,,,,विकल भारत अकुलाता
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